मावन शरीर में दो भाग होते है पहले जड़ और दूसरा चेतन। इस शब्दों का साधारण अर्थ है, जड़ अर्थात पंच तत्वों जिससे मानव शरीर बना होता है, और दूसरा चेतन जिसका सम्बन्ध आत्मा से होता है। जड़ शरीर के लिए पंच तत्वों से साधन उपक्रम को प्राप्त होते हैं औरउन्हें एकत्रित करने के लिए भौतिक विज्ञान की विद्या अपनानी पड़ती है। इसीतरह आत्मा को चेतना की प्रगति और समृद्धि के लिए चेतना को विज्ञान का सहारालेना पड़ता है।इसी आवश्यकता की पूर्ति अध्यात्म विज्ञान, ब्रह्मविद्या का प्रयोजन करता है। अध्यात्म विज्ञान का उद्देश होता हैं, आत्मा कल्याण पूर्णता ईश्वर के स्तर तक पहुचने में मदद करता है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए चार चरणनिर्धारित हैं। जिसमे पहला आत्मचिंतन, दूसराआत्मसुधार, तीसराआत्मनिर्माण और चौथा व आखिरी प्रयोजनआत्मविकास होता है। आत्मकल्याण के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जो कुछ करना पड़ता है, उसी का नाम उपासना एवं साधना है।
1 – आत्मचिन्तन अर्थात आपकी आत्मा, अजर अमर शुद्ध चेतनस्वरूप का मान है। मानव शरीर और मन में अपनी स्वतंत्र एवं पृथक सत्ता की प्रगाढ़अनुभूति।
2 – आत्मसुधार इसका तात्पर्य है, अपने ऊपर चढ़े हुए मल आवरण विक्षेप, कषाय-कल्मषो का निरूपण बदलकर निरिक्षण तथा सुसंपन्न स्थिति को विपन्नता में देने वाली विकृतियों का समुचित ज्ञान।
3 – आत्मनिर्माण का मतलब, विकृतियों को रद्द करके उसकी जगह पर सद्भावानाओं और सत्प्रवृत्तियोंकी, उत्कृष्ट कर्तव्य और आदर्श कर्तव्य निभाने का सुनिश्चित संकल्पएवं साहसिक प्रयास करना।
4 – आत्मविकास का तात्पर्य – चिंतन और कर्तव्य कोलोकमंगल के लिए सत्प्रवृत्ति संवर्धन के लिए व ईश्वरीय स्तर पर बन्ने के लिए अत्याधिक संयम, तप, त्यागबलिदान को संतोष एवं आनंद की अनुभूति। इनसभी चरणों में आत्मकल्याण का उद्देश्य प्राप्त होता है।