हमारे यहाँ की परंपराएं धोका नही है विवाह समर्पण है

एक सुन्दर श्लोक अंकित है श्रीमद्भागवत गीता मे……
“दुर्लभ मानुषं देहि, देहिनां क्षणु भंगुरा ।।”
अर्थात् ‘मनुष्य का शरीर दुर्लभ है, परन्तु क्षणभंगुर भी है’।
मानव जाति के छोटे से जीवन के इस सफर में परिवार ही उसका घरौंदा होता है, जहां पर सुख-दुख, आनन्द, सुकून, शांति, सफलता, संघर्ष  और फिर अंतिम में विश्रांति उसे मिलती है। परिवार को गृहस्थ आश्रम कहा गया है जो की व्यक्ति के जीवन की रीढ़ की तरह होती है एवं विवाह जीवन की बुनियाद होती है। आज की भौतिकवाद की चकाचौंध में नई पीढ़ी के लोग इस बुनियाद के प्रति अत्तयंत लापरवाह होते जा रहे है।
वस्तुतः विवाह ही जीवन की बुनियाद है जो की पवित्रता, सत्य, विश्वास एवं समर्पण के आधार स्तंभों पर ही खड़ा रहता है।  हमारी भारतीय संस्कृति के अंतर्गत पाणिग्रहण संस्कार के पूर्व (सात वचन ) सप्तपदी गृहस्थ जीवन की महत्वता को ही प्रतिपादित करता हैं। विवाह के समय इसमें वर एवं वधु पवित्रता, विश्वास, सत्य और समर्पण के साथ ही जीवन प्रारंभ करने का संकल्प एवं  वचन लेते हैं। किन्तु आज की पीढ़ी के लोग आधुनिक शैली में तो धोखा, फरेब, छल और कपट के आवरण से ही विवाह की पवित्रता एवं सत्यता को दूषित करने में लगे हुए हैं। अब हमें ही सजग होना होगा जिससे कि झूठे स्वाभिमान और स्वार्थ की प्रतिपूर्ति के लिए हमारे एवं हमारे बच्चों का पूरा जीवन नष्ट ना हो।
किस प्रकार की जीवनशैली हम चाहते हैं ?
“प्रश्न यह उठता है कि आप किस प्रकार की जीवनशैली को स्वीकार करते हैं? संस्कारवान, आधुनिक या  पाश्चात्य जीवनशैली”।
जो भी शैली में आप रहते हैं उसे पूरी तरह से उसी परिवेश में खुद को ढालकर जीवन को जीना सीखिए क्योंकि जीवन को जीना एवं जीवनयापन करना भी एक प्रकार की कला है। माता-पिता के आचार-व्यवहार का आपकी संतान पर पूरा प्रभाव होता है एवं आपके ही दिए हुए संस्कार और जीवनशैली के आधार पर ही आपकी संतान अपने जीवन में विकास करती है। यदि आपको ऐसा लगता है की आपकी संतान उचित मार्ग पर नही चल रही है तो माता-पिता का परम कर्तव्य है की समय रहते उन्हें उचित एवं अनुचित का ज्ञान कराये क्योकि संतान वयस्क होने के बाद उन्हें टोकने या डांटने से उनमें किसी भी प्रकार के सुधार होने की संभावना ना बराबर हो जाती है।

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