सच्चे मन से की गई प्रार्थना कभी निष्फल नही होती है। अगर प्रार्थना मंत्रों के माध्यम से की जा रही हो तो और भी अच्छा होता है। ईश्वरीय सत्ता को मंत्र और जप के माध्यम से मानवीय प्रार्थना से जोड़ती है। शास्त्रों और सिद्ध साधकों का मानना है की, अपने ईश्वर से कुछ कहने के लिए मंत्र और जप प्रयोग उत्तम बताया गया है। इस प्रक्रिया को पूरा करते हुए हमारा मन अपने अराध्य देवता के चरणों मे लगता हैं। इस आराधना के माध्यम से हम अपने मन को आज्ञा चक्र तक ले जाते है, जहां दैवीय शक्ति से मिलकर अपूर्व शक्तिशाली बन जाता है। इस मिलन में भक्त और भगवान के बीच अंतर नहीं रह जाता है।
एक गुप्त प्रक्रिया मंत्र है जो हमें गुरूदेव के आशीर्वाद से प्राप्त होता है। शास्त्रों और पुराणों मे जप की क्रिया को वाचिक उपांशु और मनुष्य जप मे अलग किया गया है। इनमें मानस जप को श्रेष्ठ माना गया है। इस प्रक्रिया में साधक (भक्त) अपने मन ही मन मंत्रो को दोहराते हुए पढ़ता हैं, इसमे साधक अपने होंठ और जीभ नही हिलते है केवल मंत्रों को मन में ही दोहराते है। मंत्रो मे दो प्रकार की शक्तियां मानी गई है, पहली वाच्य शक्ति और दूसरी वाचक शक्ति। वाचक शक्ति मंत्र का शरीर है और वाच्य शक्ति उसकी आत्मा। जप में प्रयुक्त चित्र और विग्रह, यंत्र, माला ये सभी वाचक शक्ति को बढ़ाने की सामग्री है। ‘वाच्य शक्ति’ तो स्वयं आप (भक्त) है। मंत्र आराधना का माध्यम भर है, लेकिन साधक जप तो स्वयं करता है और मंत्र की सिद्धि साधक की साधना पर पूर्णतया पर ही सम्भव होती है।
जप के समय इस बात का ख्याल रखना चाहिए की मन में किसी प्रकार की मलीनता नहीं होनी चाहिए। विश्वामित्र संहिता ने बताया की, विचार, मंत्र में बर्हिमुखी होने पर साधक की वृत्ति और अंतर्मुखी होने पर साधक की शक्तियां बन जाती हैं। ईश्वर बाह्य तथा अंतस्थ दोनो ही रुप में होते हैं। भक्त मंत्र जप करते समय जितना शुद्ध होता चला जाता है, परिणाम में ईश्वर उसी रूप मे स्पष्ट होते चले जाते हैं। अर्थात् मंत्र एक शक्ति है और जप एक विधान है। इसकी सिद्धि भक्त की निष्ठा, आचरण और आराधना पर निर्भर करती है। जप तभी सिद्ध होता है, जब जप को सही विधान और निःस्वार्थ भाव से किया जाए।