भारत देश में परम सत्ता को जानने समझने वाली दो धाराएं रही हैं। पहली धारा परम सत्ता के निर्गुण रूप को मानने वाली और दूसरी सगुण रूप को मानने वाली है। निर्गुण धारा को मानने वालों का कहना है कि भगवान से सृष्टि हुई है। सृष्टि नाम रूपात्मक है, तो उसके रचयिता का न कोई नाम दिया जा सकता है न उसका कोई रूप हो सकता है। उसकी आराधना भी उसके गुणातीत रूप को सामने रखकर ही की जानी चाहिए। वही दूसरी ओर सगुण धारा में विश्वास रखने वालों का मानना है की सामने तो किसी स्वरूप को ही रखा जा सकता है। यह मनुष्य के ज्ञान की सीमा ही है कि ज्ञान उसी का हो सकता है, जिसका स्वरूप हो। केवल परमयोगी ही अतीद्रिय अनुभव की बात करते हैं। लेकिन अतींद्रीय अनुभव के बावजूद नहीं बताया जा सकता कि वह अनुभव क्या था? क्योंकि तब हमें उसे भाषा में व्यक्त करना होगा, जो सांसारिक है, नाम रुपात्मक है। इसलिए एक दूसरे से अलग होते हुए भी दोनों धाराएं एक दूसरा का महत्व स्वीकार करती रही है। दोनों धाराएं में कभी टकराव की नौबत नहीं आई।
मूर्तिपूजन का आरंभ सगुण धारा से ही हुआ है। मूर्ति पूजा के पीछे एक बहुत बड़ी शास्त्रीय अनिवार्यता भी है। शास्त्रीय मान्यता यह है कि जो दिखता है वही ज्ञान का आधार हो सकता है। अदृष्ट को अनुमान या शब्द से समझ सकते हैं, पर इसके लिए परम सत्ता को भी दृष्ट होना चाहिए। परम सत्ता के दर्शन होने के लिए उसका कोई स्वरूप का होना आवश्यक है। इस स्वरूप को स्थपतियों ने परमसत्ता के ही अंतःकरण में देखा और इस स्वरूप की मूर्ति बनायी गई।
वर्तमान समय में तो हर कोई मूर्ति बनाने लगा है। लेकिन शास्त्रीय मान्यता यह है कि शुद्ध चित्त वाले केवल उसी स्थपति को देव मूर्ति बनानी चाहिए जो ईश्वर के स्वरूप को जनता समझता है। उसके स्वरूप के बारे में शास्त्रों में दिए गए निर्देशों को जानता है। देवमूर्ति की उस विशेष छवि को अपने अंतःकरण में देख चुका है। ईश्वर के सगुण रूप के बारे में अनेक प्रसिध्य कथाएं प्रचलित हैं। विद्यारण्य स्वामी द्वारा रचित शंकर दिग्विजय में यह कथा आती है कि आदि शंकराचार्य ने अपने माता को वचन दिया था कि वे उनके जीवन की अंतिम समय में उनके पास आ जाएंगे।
जब अंतिम समय आया तो वे अपनी माता के पास पहुंच गए। आदि शंकर जो पूरे भारत में सिर्फ ब्रह्म की सत्ता सिद्ध करके हुए घूम रहे थे, अपनी माता के पास पहुंचे और उनकी अंतिम इच्छा जानना चाही। तब उनकी माता ने कहा कि वे मरने से पहले भगवान के दर्शन करना चाहती हैं। आदि शंकर ने तब अपनी माता से आंख बंद करने के लिए कहा और योगशक्ति से भगवान की छवि प्रस्तुत कर दी। माता ने भगवान शिव के स्वरूप को देखा तो घबरा गईं। उन्होंने कहा कि वह भगवान के सौम्य स्वरूप का दर्शन करना चाहती हैं। आदि शंकर ने तब उनको भगवान विष्णु की छवि के दर्शन कराए। वह संतुष्ट होकर इस संसार से विदा ले ली। इस तरह भगवान के निर्विकल्प स्वरूप की सिद्धि में लगे आदि शंकर को भी भगवान के सगुण स्वरूप में शरण लेनी पड़ी।