हमारे बीच पाए जाने वाली एक जाती कुम्हार की भी है । कुम्हार वे जाती है जो मिट्टी के बर्तन एवं खिलौना बनाते है जो भारत के सभी क्षेत्रो में पाई जाती है। इस जाति के लोगों का मानना है कि उनके आदि पुरुष महर्षि अगस्त्य हैं। यह भी माना जाता है कि यंत्रों में कुम्हार के चाक का सबसे पहले आविष्कार हुआ। लोगों ने सबसे पहले चाक घुमाकर मिट्टी के बर्तन बनाने का आविष्कार किया। इस प्रकार कुम्हार अपने को आदि यंत्र कला का प्रवर्तक कहते हैं जिसके कारण अनेक स्थान के कुम्हार अपने को प्रजापति कहते हैं। वर्तमान में कुम्हार कि काफी दयनीय दशा है। आइये हम और आप मिलकर कुम्भारो के लिए आवाज़ उठाते है ताकि इस विलुप्त होती कला को जीवित रख सके और इस दिवाली चानीज सामानों की जगह मिट्टी के दिए का प्रयोग करें ताकि वो भी हमारी तरह दिवाली माना सके।
उपजाति
अलग-अलग प्रदेशों में कुम्हारों की अलग-अलग उपजातियाँ हैं। कनौजिया, हथेलिया, सुवारिया, बर्धिया, गदहिया, कस्तूर और चौहानी ये उपजातिया उत्तर प्रदेश में पाई जाती हैं। इन उपजातियों के नामकरण के संबंध में लोगों को स्पष्ट रूप से कुछ भी जानकारी नहीं है परन्तु जो कुम्हार बैलों पर मिट्टी लाद कर लाते हैं वे बर्धिया और जो गधों पर लाते है वे गदहिया कहलाते हैं।
इसी तरह बंगाल में इनकी उपजातियों की संख्या बीस के लगभग हैं जिनमें बड़भागिया और छोटभागिया मुख्य हैं काले रंग के बर्तन बनाने वालों को बड़भागिया और लाल रंग के बर्तन बनाने वालो को छोटभागिया कहते हैं। इसी प्रकार दक्षिण भारत में भी कुम्हारों में अनेक भिन्नता हैं। कर्नाटक में कुम्हार अपने को अन्य प्रदेशों के कुम्हारों से श्रेष्ठ मानते हैं।
धार्मिक रूप
धार्मिक दृष्टि से कुम्हार प्राय: वैष्णव हैं। उड़ीसा में जगन्नाथ के उपासक होने के वजह से वे जगन्नाथी कहलाते हैं। दक्षिण में कुम्हार प्राय: लिंगायत हैं परन्तु इनमें विश्वकर्मा की पूजा विशेष रूप से प्रचलित हैं। बंगाल में तो उनकी बड़ी मान्यता है।