गणेश चतुर्थी उत्सव राजवाडे में भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी से पांच दिन तक शाही तरीके से इंदौर की होलकर रियासत में मनाया जाता था। इस उत्सव के लिए राजवाड़े की दशहरा कचहरी स्थायी जगह मानी जाती थी। झांकी के बीच सोने के सिंहासन के ऊंचे आसन पर मूर्ति की स्थापना की जाती थी। गणेशजी की दो मू्र्तियां जूनी इंदौर कऱगोणकर के घराने से बनवाई जाती थी। गणेशजी की दो मू्र्तियो में से एक सिंहासन पर और दूसरी नीचे की सीढ़ी पर स्थापित की जाती थी।
हाथी पर चांदी के हौदे पर सवार राजोपाध्याय कवठेकर शाही लवाजमे और पालकी के साथ खरगोणकर के राजवाडे पहुचते थे। यहां पर मूर्तियों का पूजन किय जाता था फिर मूर्तियों को पालकी में रखा जाता था। शाही जुलूस सरकारी बैंड के साथ राजवाड़ा पहुंचता था। कमानी दरवाजे पर प्रवेश से पहले शाही फौज सलामी देती थी। ‘श्री खरगोणकर राजवाड़े’ में भगवान गणेश जी मूर्तियों को जवाहरात खाने से आए गहनों, सोने की डंडीवाली चंवर और छत्री को सिंहासन पर सजाते थे।
पूजन में इक्कीस पत्रियों मधुमालती, रूई, अर्जुन, माका, दुबेल, मोगरा, बेर, तुलसी, धोतरा, कनेर, शमी, अछाड़ा, डोरली, विष्णुक्रांत, अनार, देवदार, मखा, देवदार, पीपल, जूही, केवड़ा परिजात कमल के फूल शामिल होते थे। होलकर महाराज की मौजूदगी और मंगल वाद्यों की गूंज में भगवान गणेश की प्राण प्रतिष्ठा की जाती थी। इस विधि से शाही परिवार में शाही रीति रिवाजों से गणपति की पूजा किया करता था।